तीन प्रकार के शरीर कौन-कौन से हैं ? ये शरीर आत्मा को क्यों दिए गए थे? क्या आत्मा कोई वस्तु है?
- April 10, 2020
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प्रश्न – तीन प्रकार के शरीर कौन-कौन से हैं ? ये शरीर आत्मा को क्यों दिए गए थे? क्या आत्मा कोई वस्तु है?
उत्तर – तीन प्रकार के शरीर हैं।
एक स्थूल शरीर।
दूसरा सूक्ष्म शरीर।
तीसरा कारण शरीर।
*स्थूल शरीर* पृथ्वी जल अग्नि वायु और आकाश, इन पांच महा भूतों से बनता है। जो हमें सिर से पांव तक दिखता है यह स्थूल शरीर है।
*सूक्ष्म शरीर* में अट्ठारह पदार्थ होते हैं। सांख्य दर्शन में सूक्ष्म शरीर के 18 पदार्थ बताएं हैं। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास में किसी ने गड़बड़ कर के 18 की बजाय 17 लिख दिए।) सांख्य दर्शन के अनुसार जो अट्ठारह पदार्थ हैं, वे इस प्रकार से हैं।
एक बुद्धि एक अहंकार एक मन पांच ज्ञानेंद्रियां पांच कर्मेंद्रियों और 5 तन्मात्राएं . इन 18 चीजों का समुदाय सूक्ष्म शरीर है।
और *कारण शरीर*, जो मूल प्रकृति है (वह सत्त्व रज तम इन तीन प्रकार के सूक्ष्मतम कणों का समुदाय है,) उस मूल प्रकृति का नाम कारण शरीर है ।
मूल प्रकृति, जड़ पदार्थ है।
उससे उत्पन्न अट्ठारह चीजें = सूक्ष्म शरीर भी जड़ है।
और पंचमहाभूत पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश ये भी जड़ हैं। इन 5 महाभूतों से बना स्थूल शरीर भी जड़ है।
इस तरह से तीनों शरीर जड़ हैं।
अब जो सत्यार्थप्रकाश के नौवें समुल्लास में, सूक्ष्म शरीर के दो भेद बताए हैं, भौतिक और अभौतिक।
उनमें से भौतिक सूक्ष्म शरीर तो यही है जिसमें ऊपर आपको अट्ठारह पदार्थ बताए गये हैं।
जो दूसरा अभौतिक सूक्ष्म शरीर है , उसका अर्थ है , जीवात्मा की अपनी स्वाभाविक 24 शक्तियां। ये 24 शक्तियां भी सत्यार्थ प्रकाश के 9वें समुल्लास में लिखी हुई हैं।
और ये मोक्ष में भी साथ रहती हैं। अर्थात यह आत्मा का अपना स्वरूप ही है, जो 24 शक्तियां हैं। इसी को अभौतिक सूक्ष्म शरीर के नाम कह दिया है।
ये तीन शरीर आत्मा को मोक्ष प्राप्ति करने के लिए दिए गए थे।
आत्मा तीन जड़ शरीरों से पृथक, एक चेतन वस्तु है । वह चेतन है। और वह भी वस्तु है।
(कुछ लोग आत्मा को वस्तु नहीं मानते, एक शक्ति मानते हैं। यह उनकी अज्ञानता है। क्योंकि वे लोग वैदिक दर्शनों की वस्तु की परिभाषा नहीं समझते। न तो इन शास्त्रों को पढ़ते हैं और न ही परिभाषा समझते हैं।
आजकल के लोग भौतिक विज्ञान की वस्तु की परिभाषा जानते हैं, कि *वस्तु उसे कहते हैं जिसमें रूप हो रंग हो आकार हो भार हो धक्का मारती हो। भौतिक विज्ञान में चार प्रकार की वस्तुएँ मानी जाती हैं। सॉलि़ड लिक्विड गैस और प्लाज्मा ।*
आत्मा इन चारों में से एक प्रकार का भी नहीं है। इसलिए उन्हें लगता है कि आत्मा कोई वस्तु ही नहीं है। जबकि वैदिक दर्शन शास्त्रों के अनुसार आत्मा भी एक वस्तु है। वैशेषिक दर्शन में वस्तु या द्रव्य की परिभाषा इस प्रकार से है। *द्रव्य या वस्तु उसे कहते हैं जिसमें कुछ गुण हों, अथवा गुणों के साथ क्रिया भी हो सकती है।* तो आत्मा एक द्रव्य है, एक वस्तु है। क्योंकि इसमें इच्छा द्वेष ज्ञान प्रयत्न आदि गुण हैं। और यह अच्छे बुरे कर्म भी करता है, उनका फल सुख-दुख भी भोगता है। इस प्रकार से गुण और कर्म होने से आत्मा एक वस्तु है ।)
जब आत्मा संसार में जन्म लेता है , तब तीनों शरीर उसके साथ संयुक्त हो जाते हैं । और जब आत्मा का मोक्ष होता है, तब ये तीनों जड़ शरीर, उस से छूट कर अलग हो जाते हैं । इन तीनों शरीरों सेे छूट जाने के कारण फिर उसे कोई भी दुख प्राप्त नहीं होता। यह सब व्यवस्था ईश्वर के आधीन होती है।
क्योंकि दुख प्राप्ति का कारण इन 3 प्राकृतिक जड़ शरीरों के साथ संबंध होना ही है। ये तीनों शरीर जड़ हैं। प्रकृति और उसके विकार रूप हैं ।
इनमें सत्व रज और तम ये तीन प्रकार के सूक्ष्मतम कण होते हैं। इन कणों को दार्शनिक भाषा में, सत्त्वगुण रजोगुण और तमोगुण के नाम से भी कहा जाता है। इन कणों में सत्व गुण तो सुख देता है। रजोगुण दुख देता है। और तमोगुण आलस्य मूर्खता नशा निद्रा आदि उत्पन्न करता है।
जब आत्मा प्राकृतिक शरीरों से बिल्कुल छूट जाता है, तब उससे भौतिक सुख, दुख और मूर्खता आदि सब कुछ छूट जाते हैं। इसके अतिरिक्त मोक्ष में वह ईश्वर के साथ संबद्ध होकर ईश्वर के बहुत उत्तम आनंद का भोग करता है।
हम सबका और आपका यही एक लक्ष्य है, कि सारे दुखों से छूटें और ईश्वर के उत्तम आनंद को प्राप्त करें।
मोक्ष में इस आनंद को प्राप्त करने की एक निर्धारित समय सीमा है। वह है, 31 नील, 10 खरब, और 40 अरब वर्ष । इतने समय तक आत्मा मोक्ष में सब दुखों से छूटकर ईश्वर के उत्तम आनंद का अनुभव करता है।
इतने समय में वह आनंद से पूरी तरह से तृप्त हो जाता है। तब तक उसका कर्मफल भी समाप्त हो जाता है।
उसके बाद आत्मा के बचे हुए पाप पुण्य का फल भोगने के लिए, ईश्वर उस आत्मा को संसार में वापस भेज देता है, और उसे नया जन्म देता है। यहां से दोबारा उसकी मोक्ष की यात्रा आरंभ हो जाती है।
*लेखक – स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, निदेशक, दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात।